Monday 6 June 2016

"वक्त के आगे यूँ छुपा मत कर"


ज़िन्दगी यूँ ही नही चलती छुप-छुप कर वक्त के आगे,
ज़ीना है अगर ये ज़िन्दगी तौबा ए ज़िगर से, छोड़ दे वक्त को कोसना छोड़ दे किश्मत को कोसना।
ना मिलेगी यह ज़िन्दगी दोबारा,
यूँ ही वक्त-वक्त पर खुद को कोसना भी छोड़ दे।
वक्त-वक्त पर बहाना बनाना ये आदत अभी गई नही तेरी, जानकर भी अनजान बनना ये भी आदत सी हो गयी तेरी।
सोच जरा परख जरा उन हस्तियों को उन शख्शों को आज गर्व हैं जिन्हें अपनी काबिलियत पर।
मत छुपा कर मत छुपा कर, यूँ खुद को कोसा भी मत कर ।
सोच जरा और सोच जरा वो भी इंसान तू भी इंसान
ज़िन्दगी यूँ ही नही चलती छुप-छुप के वक्त के आगे,
सोच जरा......और सोच जरा.....!
"बृज
रावत"

"बरस जा"


आज कुछ बादल से लगे हैं दूर आसमा पे, शायद मिलेगी राहत हमें इस भरी तपन से ! 
तेरी इसी आस मैं बैठा हूँ एक मुद्दत लेकर, तू जरा अपनी ताकत मुझ पर कुर्बान कर दे !

ए दूर के बादल कभी बरस भी जा, ऊब गया हूँ मैं इस भरी तपन से !
देख जरा हाल क्या हो गया इंसान का यहां, रहमत अपनी हमपर भी कुर्बान कर दे ! 

दया तो तुझे आती ही होगी मुझ पर शायद, गलती है क्या मेरी मुझे ये बता भी दे !
मैं सहमा हूँ बहका सा हूँ बस तेरी खातिर, तू बस अपनी सूरत कभी दिखा भी दे !

सुख गये खेत और खलिहान मेरे तू है बस वजह , सूरत तो छोड़ कभी मूरत अपनी दिखा भी दे !
जानें भी न जाने कितनी कुर्बान हुई तेरी खातिर यहां, तू क्या है चाहता अब खुलकर जरा बता भी दे !

रो- रो कर थक गए हम इस कदर , जरा बौछारें अपनी अब दिखा भी दे !

                                          .. .. .. .. बृज

"कि तुम पागल हो"

एक दिन उठाया था बीड़ा मैंने दुनिया की सोचने की, 
यूँ सोच ही रहा था कि दोस्त बोला बृज तुम पागल हो !

झगड़ रहे थे कुछ लोग मेरे गली में इक दिन,
 सुलझाने की सोच ही रहा था कि दोस्त बोला बृज तुम पागल हो !

इक दिन आरोप भी लगे थे मुझ पर यूँ ही बेवजह,
 फ़रियाद की सोच ही रहा था कि दोस्त बोला बृज तुम पागल हो !

बीच सड़क पर तड़प रहा था इक बार शख़्स कोई,
इमदाद की सोच ही रहा था कि दोस्त बोला बृज तुम पागल हो !

छेड़ रहे थे सरेआम इक लड़की को कुछ मनचले, 
पुलिस को बुलाऊँ सोच ही रहा था कि दोस्त बोला बृज तुम पागल हो !


मैं सही था या दोस्त मेरा उस वक्त , ये बात पूछने की सोच ही रहा था
 कि दोस्त बोला बृज तुम वाकई पागल हो ! 

मैं शायद सही था सच था खुद में सोचने की सोचूं , 
कि याद आया वही जो दोस्त कहा था बृज तुम पागल हो
.. .. .. बृज

                                "रुको नहीं"

लहरें आती है आने दो लहरों को, ढा रही कहरें तो ढा जाने दो कहरों को !

कुछ सीखने की लालसा में अगर फँस गये बीच भंवर में , तो फँस जाने दो खुद को !


प्रलय की ये धारायें तो आती ही रहेंगी , आ रही बाधायें तो आ जाने दो बाधाओं को !
वक्त है जो अभी गुज़र वो भी जायेगा , होना पडे समर्पित अगर , तो समर्पित हो जाने दो खुद को !

ताबेदार क्यों होते हो यहाँ यूँ ही बेफज़ूल में, व्यथाएं भी आएँगी , आ जाने दो व्यथाओं को !
करना वही जो खुद को लगे सही, दुनिया का काम है कहना कह जाने दो उसको !!

सुदूर वन जैसा हो मन अपना, कुछ चला भी जाय तो जाने दो उस कुछ को !!
सपने बुने हैं जो तुमने पूरे वो भी होंगे , वक्त को बस पकड़ना कस के छूट गया जो छूट जाने दो उसको !!

                                                                      .. ..बृज